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गलत साधना

जैसा कि आपने पिछले ब्लॉग में पढा की श्राद्ध निकालना व्यर्थ है
आज हम जानेंगे कि क्या व्रत करना उचित है

व्रत - हिन्दू समाज में व्रत को बहुत महत्व दिया जाने लगा है लेकिन क्या व्रत करना उचित है
आइये जाने गीता के अनुसार
प्रश्न :- क्या एकादशी, कृष्ण अष्टमी या अन्य व्रत भी शास्त्रों में वर्जित हैं?
उत्तर :- गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में बताया है कि बिल्कुल न खाने वाले यानि
व्रत रखने वाले का योग यानि परमात्मा से मिलने का उद्देश्य पूरा नहीं होता।
गीता अध्याय 6 श्लोक 16 :- हे अर्जुन यह योग (यानि परमात्मा प्राप्ति के लिए
की गई साधना) न तो बहुत खाने वाले का और न बिल्कुल न खाने वाले का तथा
न बहुत शयन करने वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
 इसलिए व्रत रखना शास्त्राविरूद्ध होने से व्यर्थ सिद्ध हुआ।
तो दोस्तो गीता में भी व्रत करना वर्जित है


हिन्दू समाज मे पीपल , तथा तुलसी की पूजा

क्या आप जानते है कि पीपल तथा तुलसी की पूजा भी व्यर्थ है आइये विस्तार से जानते है

वाणी सँख्या 4:- पीपल पूजै जाँडी पूजे, सिर तुलसाँ के होइयाँ।
दूध-पूत में खैर राखियो, न्यूं पूजूं सूं तोहियाँ।।4।।
शब्दार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने अंध श्रद्धा भक्ति करने वालों की अन्य
साधनाओं का वर्णन किया है कि भोली जनता को ज्ञानहीन आध्यात्मिक गुरूओं ने
कितने निम्न स्तर की साधना पर लगाकर उनके जीवन के साथ कितना बड़ा धोखा
किया है। अज्ञानी गुरूओं से भ्रमित होकर पीपल व जांडी के वृक्षों तथा तुलसी के
पौधे की पूजा करते हैं। प्रार्थना करते हैं कि आप सबकी पूजा इसलिए करते हैं कि
मेरे दूध यानि दुधारू पशुओं की तथा पूत यानि मेरे पुत्रों व पोत्रों की खैर रखना
(रक्षा करना) यानि पशु पूरा समय दूध दें। मृत्यु न हो तथा पुत्रों, पोत्रों व परपात्रों
की मृत्यु ना हो। उनकी आप (पीपल तथा जांडी के पेड़ तथा तुलसी का पौधा)
रक्षा करना।
परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि हे अंधे पुजारियो! कुछ तो अक्ल से काम लो। जिन जड़ (जो चल-फिर नहीं सकते। उनको पशु हानि पहुँचाते हैं। वे अपनी
रक्षा नहीं कर पाते। तुलसी को बकरा खा जाता है। वह अपनी रक्षा नहीं कर
सकती।) वृक्षों और पौधों की पूजा करके घर-परिवार में आप धन वृद्धि तथा जीवन
की रक्षा की आशा करते हो। वे स्वयं विवश हैं। आपकी रक्षा कैसे करेंगे? यह
आपकी अंध श्रद्धा है जो आपके अनमोल मानव जीवन के लिए खतरा है यानि
आपका मानव जीवन शास्त्रा वर्णित साधना त्यागकर शास्त्रा विरूद्ध साधना रूपी
मनमाना आचरण करने से नष्ट हो जाएगा। वाणी सँख्या 4 में एक वाक्य है कि:-
पीपल पूजै, जांडी पूजै, सिर तुलसां के होइयां।
‘‘सिर होना’’ का तात्पर्य है कि जो कुछ नहीं कर सकता, अज्ञानता के कारण
उसी व्यक्ति से अपने कार्यवश बार-बार निवेदन करना। वह व्यक्ति उस भोले मानव
से कहता है कि मेरे सिर क्यों हो रहा है? मैं आपका यह कार्य नहीं कर सकता।
परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि जो आपके कार्य को करने में सक्षम नहीं
हैं, जो कार्य परमात्मा के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता और जो स्वयं असहाय
हैं, उनसे आप कार्य सिद्धि की आशा करते हैं। यह अज्ञानता है।
वाणी सँख्या 5:- आपै लीपै आपै पोतै, आपै बनावै अहोइयाँ।
उससे भौंदू पोते माँगै, अकल मूल से खोईयाँ।।5।।
शब्दार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने आन-उपासना की एक और अंधश्रद्धा का
स्पष्टीकरण किया है। कहा कि एक भोली वृद्धा लोकवेद के अनुसार आन-उपासना
करते हुए स्वयं ही अहोई नामक माता (देवी) का चित्रा बनाती है। उसके लिए पहले
दीवार को गारा तथा गाय के गोबर को मिलाकर लीपती है (पलस्तर करती है) उस
पर अहोई देवी का चित्रा अंकित करती है। फिर उसकी पूजा करके पुत्रावधु के लिए
बेटा माँगती है। परमात्मा कबीर जी ने कहा कि ऐसे अंधश्रद्धा भक्ति करने वालों
की अकल (बुद्धि) मूल से यानि जड़ से समाप्त है, वे निपट मूर्ख हैं। मन्नत मानते
समय वृद्धा कहती है कि हे अहोई देवी! आप पुत्रावधु को बेटा देना, गाय को बछड़ा
देना, (पुराने समय में गाय को बछड़ा होना लाभदायक था क्योंकि बछड़ा बैल
बनता था। बैलों से खेती होती थी।) भैंस को चाहे कटिया (कटड़ी) ही दे देना।
वृद्धा कितनी चतुर है। उसके कहने का भाव है कि आप देवी को नर यानि बछड़ा
तथा बेटा माँगकर परेशान नहीं करना चाहती। भैंस को तो भले ही मादा (कटिया)
दे देना। उसे पता है कि कटड़े की अपेक्षा कटिया कितनी लाभदायक है। कटड़ा
तो कसाईयों को काटने के लिए बेचते थे, कोई काम नहीं आता था। बुढ़िया देवी
के साथ भी कितनी चतुरता कर रही है। अपने देवताओं के साथ भी हेरा-फेरी की
बातें करती है। उपरोक्त पूज्य बनावटी देवी तथा पेड़-पौधों से मन्नत माँगते समय
दक्षिणा के रूप में सवा रूपया (एक रूपया और चार आने) अपनी चुनरी के पल्ले
से बाँधकर कहती है कि यदि मेरी सब मनोकामना पूरी हो गई तो सवा रूपये का
प्रसाद बाँटूगी। यह दक्षिणा भी तब दँूगी, जब सारी मन्नत पूरी हो जाऐंगी। यदि
एक भी ना हुई तो कोई दक्षिणा नहीं दी जाएगी।

दोस्तों आपने देखा कि पीपल तथा तुलसी पूजा भी व्यर्थ है

वर्तमान समय मे सभी लोग आन उपासना कर रहे है जैसे
मूर्ति पूजा , पीपल तथा तुलसी पूजना इत्यादि

आन-उपासना करना व्यर्थ है
सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) में आन-उपासना निषेध बताया है। उपासना का अर्थ
है अपने ईष्ट देव के निकट जाना यानि ईष्ट को प्राप्त करने के लिए की जाने वाली
तड़फ, दूसरे शब्दों में पूजा करना।
आन-उपासना वह पूजा है जो शास्त्रों में वर्णित नहीं है।

मूर्ति-पूजा आन-उपासना है:-

इस विषय पर सूक्ष्मवेद में कबीर साहेब ने इस प्रकार स्पष्ट किया है:-
कबीर, पत्थर पूजें हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
तातें तो चक्की भली, पीस खाए संसार।।
बेद पढ़ैं पर भेद ना जानें, बांचें पुराण अठारा।
पत्थर की पूजा करें, भूले सिरजनहारा।।
शब्दार्थ:- किसी देव की पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करते हैं जो
शास्त्राविरूद्ध है। जिससे कुछ लाभ नहीं होता। कबीर परमेश्वर ने कहा है कि यदि
एक छोटे पत्थर (देव की प्रतिमा) के पूजने से परमात्मा प्राप्ति होती हो तो मैं तो
पहाड़ की पूजा कर लूँ ताकि शीघ्र मोक्ष मिले। परंतु यह मूर्ति पूजा व्यर्थ है। इस
(मूर्ति वाले पत्थर) से तो घर में रखी आटा पीसने वाली पत्थर की चक्की भी
लाभदायक है जिससे कणक पीसकर आटा बनाकर सब भोजन बनाकर खा रहे हैं।
वेदों व पुराणों का यथार्थ ज्ञान न होने के कारण हिन्दू धर्म के धर्मगुरू पढ़ते
हैं वेद, पुराण व गीता, परंतु पूजा पत्थर की करते तथा अनुयाईयों से करवाते हैं।
इनको सृजनहार यानि परम अक्षर ब्रह्म का ज्ञान ही नहीं है। उसको न पूजकर
अन्य देवी-देवताओं की पूजा तथा उन्हीं की काल्पनिक मूर्ति पत्थर की बनाकर पूजा
का विधान लोकवेद (दंत कथा) के आधार से बनाकर यथार्थ परमात्मा को भूल गए
हैं। उस परमेश्वर की भक्ति विधि का भी ज्ञान नहीं है।
 विवेक से काम लेते हैं:- परमात्मा कबीर जी ने समझाने की कोशिश की
है कि आप जी को आम का फल खाने की इच्छा हुई। किसी ने आपको बताया कि
यह पत्थर की मूर्ति आम के फल की है। आम के फल के ढ़ेर सारे गुण बताए। आप
जी उस आम के फल के गुण तो उसको खाकर प्राप्त कर सकते हैं। जो आम की
मूर्ति पत्थर की बनी है, उससे वे लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। आप जी को आम
का फल चाहिए। उसकी यथार्थ विधि है कि पहले मजदूरी-नौकरी करके धन प्राप्त
करो। फिर बाजार में जाकर आम के फल विक्रेता को खोजो। फिर वह वांछित वस्तु
मिलेगी।
इसी प्रकार जिस भी देव के गुणों से प्रभावित होकर उससे लाभ लेने के
लिए आप प्रयत्नशील हैं, उससे लाभ की प्राप्ति उसकी मूर्ति से नहीं हो सकती।
उसकी विधि शास्त्रों में वर्णित है। वह अपनाऐं तथा मजदूरी यानि साधना करके
भक्ति धन संग्रह करें। फिर वृक्ष की शाखा रूपी देव आप जी को मन वांछित फल
आपके भक्ति कर्म के आधार से देंगे।
अन्य उदाहरण:- किसी संत (बाबा) से उसके अनुयाईयों को बहुत सारे
लाभ हुआ करते थे। श्रद्धालु अपनी समस्या बाबा यानि गुरू जी को बताते थे। गुरू
जी उस कष्ट के निवारण की युक्ति बताते थे। अनुयाईयों को लाभ होता था। उस
बाबा की मृत्यु के पश्चात् श्रद्धालुओं ने श्रद्धावश उस महात्मा की पत्थर की मूर्ति
बनाकर मंदिर बनवाकर उसमें स्थापित कर दी। फिर उसकी पूजा प्रारम्भ कर दी।   उस मूर्ति को भोजन बनाकर भोग लगाने लगे। उसी के सामने अपने संकट निवारण
की प्रार्थना करने लगे। उस मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठित करने का भी आयोजन करते
हैं। यह अंध श्रद्धा भक्ति है जो मानव जीवन की नाशक है।
विचार करें:- एक डाॅक्टर (वैद्य) था। जो भी रोगी उससे उपचार करवाता
था, वह स्वस्थ हो जाता था। डाॅक्टर रोगी को रोग बताता था और उसके उपचार
के लिए औषधि देकर औषधि के सेवन की विधि बताता था। साथ में किन वस्तुओं
का सेवन करें, किनका न करें, सब हिदायत देता था। इस प्रकार उपचार से रोगी
स्वस्थ हो जाते थे। जिस कारण से वह डाॅक्टर उस क्षेत्रा के व्यक्तियों में आदरणीय
बना था। उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी। यदि उस डाॅक्टर की मृत्यु के पश्चात्
उसकी पत्थर की मूर्ति बनवाकर मंदिर बनाकर प्राण प्रतिष्ठित करवाकर स्थापित
कर दी जाए। फिर उसके सामने रोगी खड़ा होकर अपने रोग के उपचार के लिए
प्रार्थना करे तो क्या वह पत्थर बोलेगा? क्या पहले जीवित रहते की तरह औषधि
सेवन, विधि तथा परहेज बताएगा? नहीं, बिल्कुल नहीं। उन रोगियों को उसी जैसा
अनुभवी डाॅक्टर खोजना होगा जो जीवित हो। पत्थर की मूर्ति से उपचार की इच्छा
करने वाले अपने जीवन के साथ धोखा करेंगे। वे बिल्कुल भोले या बालक बुद्धि के
हो सकते हैं।
 एक बात और विशेष विचारणीय है कि जो व्यक्ति कहते हैं कि मूर्ति में प्राण
प्रतिष्ठित कर देने से मूर्ति सजीव मानी जाती है। यदि मूर्ति में प्राण (जीवन-श्वांस)
डाल दिए हैं तो उसे आपके साथ बातें भी करनी चाहिए। भ्रमण के लिए भी जाना
चाहिए। भोजन भी खाना चाहिए। ऐसा प्राण प्रतिष्ठित कोई भी मूर्ति नहीं करती

दोस्तो देखा आपने की मूर्ति पूजा भी व्यर्थ है अब आप सोच रहे होंगे कि हम तो जो भी भक्ति करते है उसके विषय मे तो गीता , पुराण , शास्त्रो म् कुछ नही लिखा कि ऐसा करो फिर हम ये सब कर क्यों रहे है तो दोस्तो हम आपको बताते है कि आप को ये सब करने को कौन प्रेरित करता है

शिव लिंग पूजा भी एक आन उपासना है शिव लिंग के बारे में हमने पहले ही ब्लॉग बना रखा सत्य भक्ति मुक्ति संदेश के नाम से उसे  भी पढ़े 

दोस्तो आपको से सब करने को ब्रह्म (काल ) प्रेरित करता है ब्रम के विषय मे जानने के लिए अगले ब्लॉग का इन्तजार कीजिये टैब तक के लिए अलविदा दोस्तो








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