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नास्तिक व्यक्ति का होगा नाश

जैसा कि आप सभी जानते है कि कलयुग में सब नास्तिक होते जा रहे है सभी में नास्तिकता बढ़ती जा रही लेकिन क्या आप जानते है कि भक्ति न करने से व्यक्ति 84 लाख योनियों में भी  भटकना पड़ता  है भक्ति  न करने वाले व्यक्ति को  बहुत से कष्ठ आते है लेकिन एक सवाल भी नास्तिक व्यक्तियोँ  के सामने आता है की

सभी लोग देवी देवताओं की इतनी भक्ति करते है फिर भी दुखी क्यों है ?  





तो आज के इस ब्लॉग में हम आपको यह बताएंगे की
 हम सभी देवताओं की भक्ति करते है फिर भी दुखी क्यों है ?

जैसा का आप सभी जानते है कि हमे परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए परमात्मा की भक्ति करने से ही दुखी व्यक्ति सुखी हो जाते है लेकिन  यह तो आपको पता ही होगा कि हमे शस्त्रों के अनुसार ही भक्ति करनी चाहिए जैसा कि गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में लिखा है कि जो व्यक्ति शास्त्र विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करते है उन्हें न ही सुख होता है न ही सिद्ध प्राप्त होती और न ही उसकी गति होती है

आज हम आपको बताएंगे कि शास्त्रों व गीता म्केके किसकी  किसकी भक्ति करने को कहा है और हम कर क्या रहे है

वर्तमान समय मे तो बहुत कम लोग ही  भक्ति करते है  और
जो करते है वह भी शास्त्रविरुद्ध कर रहे है
जैसे कोई तप करता है
कोई व्रत रखता है
कोई हट योग करता है
कोई शिव जी की भक्ति करता है
तो कोई विष्णु जी की तो  कोई बृह्मा जी की भक्ति करता है
कोई ॐ नाम का जाप करता है
तो कोई कुछ भक्ति ही नही करते यानी नास्तिक हो जाते है
कोई जंगलो में जाते है (भगवान को खोजने )
कोई कावड़ यात्रा करता है
कोई श्राद्ध निकालते है
तो कोई पित्र को पूजते है

सभी अलग अलग भक्ति करते है
क्या शास्त्रों में या गीता जी  ऐसा करने को लिखा है ?
क्या नास्तिक होना सही है ?

आज हम बताएंगे कि हम सभ जो भक्ति करते है वह क्या सही है
1 क्या श्राद्ध निकलना उचित है ?
उत्तर-  नही| क्यों आइये जानते है सूक्ष्म वेद के अनुसार
‘‘श्राद्ध-पिण्डदान करें या न करें’’
वाणी सँख्या 3:- जीवित बाप से लठ्ठम-लठ्ठा, मूवे गंग पहुँचईयाँ।
जब आवै आसौज का महीना, कऊवा बाप बणईयाँ।।3।।
भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने लोकवेद (दंत कथा) के आधार से चल रही
पितर तथा भूत पूजा पर शास्त्रोक्त तर्क दिया है। कहा है कि शास्त्रोक्त अध्यात्म
ज्ञान के अभाव से बेटे अपने पिता से किसी न किसी बात पर विरोध करते हैं। पिता
जी अपने अनुभव के आधार से बेटे से अपने व्यवसाय में टोका-टाकी कर देते हैं।
पिता जी को पता होता है कि इस कार्य में पुत्रा को हानि होगी। परंतु पुत्रा पिता
की शिक्षा कम बाहर के व्यक्तियों की शिक्षा को अधिक महत्व देता है। उसे ज्ञान
नहीं होता कि पिता जैसा पुत्रा का हमदर्द कोई नहीं हो सकता। पुत्रा को जवानी
और अज्ञानता के नशे के कारण शिष्टाचार का टोटा हो जाता है। पिता को पता होता है कि बेटा इस कार्य में हानि उठाएगा। परंतु पुत्रा पिता की बात नहीं मानता
है। उल्टा पिता को भला-बुरा कहता है। पिता अपने पुत्रा के नुकसान को नहीं देख
सकता। वह फिर उसको आग्रह करता है कि पुत्रा! ऐसा ना कर। जिस कारण से
जवानी के नशे से हुई सभ्यता की कमी के कारण इतने निर्लज्ज हो जाते हैं, कई
पुत्रों को देखा है जो पिता को डण्डों से पीट देते हैं। वही होता है जो पिता को
अंदेशा था। पिता फिर समझाता है कि आगे से ऐसा ना करना। यह हानि तो
धीरे-धीरे पूरी हो जाएगी। पिता-पिता ही होता है। वह पुत्रा-पुत्राी को सुखी देखना
चाहता है। आगे चलकर जो पिता भक्ति नहीं कर रहा था, उसे कोई न कोई रोग
वृद्ध अवस्था में अवश्य घेर लेता है। संतान बहुत कम है जो पिता को वह प्रेम दे
जो माता-पिता अपने पुत्रा तथा पुत्रावधु से अपेक्षा किया करते हैं। वर्तमान में वृद्धों
की बेअदबी किसी से छिपी नहीं है। माता-पिता वृद्धाश्रमों या अनाथालयों में जीवन
के शेष दिन पूरे कर रहे हैं या घर पर पुत्रा व पुत्रावधु के कटु वचन (कड़वे बोल)
पीकर जीवन के दिन गिन रहे हैं। कबीर जी ने कहा है कि:-
वृद्ध हुआ जब पड़ै खाट में, सुनै वचन खारे।
कुत्ते तावन का सुख भी कोन्या, छाती फूकन हारे।।
शब्दार्थ:- वृद्ध अवस्था में शरीर निर्बल हो जाता है। आँखों की रोशनी कम
हो जाती है। जिस कारण से वृद्ध पिता-माता अधिक समय चारपाई पर व्यतीत
करते हैं। एक स्त्राी अपनी सासू माँ से यह कहकर कुऐं या नल से पानी लेने चली
गई कि आप ध्यान रखना। कहीं कुत्ता घर में घुसकर नुकसान न कर दे। वृद्धा को
दिखाई कम देता था। कुत्ता अंदर घर में घुस गया, एक लोटा दो किलो दूध से
भरा रखा था। उसको पी गया और गिरा गया। वृद्धा को दिखाई नहीं दिया।
पुत्रावधु आई और कुत्ते द्वारा किए नुकसान से क्रोधित होकर बोली कि तुम्हारा
(सास-ससुर का) तो इतना भी सुख नहीं रहा कि कुत्तों से घर की रक्षा कर सको।
तुमने मेरी छाती जला दी यानि व्यर्थ का अनाज का खर्च पुत्रावधु को लग रहा था।
जिस कारण कटी-जली बातें कही थी। सास-ससुर को अपने ऊपर व्यर्थ का भार
मान रही थी। कबीर जी ने बताया है कि यह दशा उन व्यक्तियों की होती है जो
परमात्मा को कभी याद नहीं करते जो गुरू धारण करके सत्य भक्ति नहीं करते।
अब वाणी सँख्या 3 का शब्दार्थ पूरा करता हूँ।
अंध श्रद्धा भक्ति वाले जब तक माता-पिता जीवित रहते हैं, तब तक तो
उनको प्यार व सम्मान के साथ कपड़ा-रोटी भी नहीं देते। झींकते रहते हैं। (सब
नहीं।) मृत्यु के उपरांत श्रद्धा दिखाते हैं। उसके शरीर को चिता पर जला दिया
जाता है। कुछ हड्डियाँ बिना जली छोटी-छोटी रह जाती हैं। शास्त्रा नेत्राहीन गुरूओं
से भ्रमित पुत्रा उन अस्थियों को उठाकर हरिद्वार में हर की पौड़ियों पर अपने कुल
के पुरोहित के पास ले जाता है। उस पुरोहित द्वारा शास्त्राविरूद्ध साधना के आधार
से मनमाना आचरण करके उन अस्थियों को पवित्रा गंगा दरिया में प्रवाह किया
जाता है। जो धनराशि पुरोहित माँगे, खुशी-खुशी दे देता है। कारण यह होता है कि कहीं पिता या माता मृत्यु के उपरांत प्रेत बनकर घर में न आ जाऐं। इसलिए
उनकी गति करवाने के लिए कुलगुरू पंडित जी को मुँह माँगी धनराशि देते हैं कि
पक्का काम कर देना। फिर पुरोहित के कहे अनुसार अपने घर की चोखट में लोहे
की मेख (मोटी कील) गाड़ दी जाती है कि कहीं पिता जी-माता जी की गति होने
में कुछ त्राुटि रह जाए और वे प्रेत बनकर हमारे घर में न घुस जाऐं।
कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि जीवित पिता को तो समय पर टूक
(रोटी) भी नहीं दिया जाता। उसका अपमान करता है। (सभी नहीं, अधिकतर)
मृत्यु के पश्चात् उसको पवित्रा दरिया में बहाकर आता है। कितना खर्च करता है।
अपने माता-पिता की जीवित रहते प्यार से सेवा करो। उनकी आत्मा को प्रसन्न
करो। उनकी वास्तविक श्रद्धा सेवा तो यह है।
कबीर जी जो स्पष्ट करना चाहते हैं कि आध्यात्मिक ज्ञान न होने के कारण
अंध श्रद्धा भक्ति के आधार से सर्व हिन्दू समाज अपना अनमोल जीवन नष्ट कर
रहा है। जैसे मृत्यु के उपरांत अपने पिता जी की अस्थियाँ गंगा दरिया में पुरोहित
द्वारा क्रिया कराकर पिता जी की गति करवाई।
 फिर तेरहवीं या सतरहवीं यानि मृत्यु के 13 दिन पश्चात् की जाने वाली
क्रिया को तेरहवीं कहा जाता है। सतरह दिन बाद की जाने वाली लोकवेद धार्मिक
क्रिया सतरहवीं कहलाती है। महीने बाद की जाने वाली महीना क्रिया तथा छः
महीने बाद की जाने वाली छःमाही तथा वर्ष बाद की जाने वाली बर्षी क्रिया
(बरसौदी) कही जाती है। लोकवेद (दंत कथा) बताने वाले गुरूजन उपरोक्त सब
क्रियाऐं करने को कहते हैं। ये सभी क्रियाऐं मृतक की गति के उद्देश्य से करवाई
जाती हैं।
 सूक्ष्मवेद में इस शास्त्रा विरूद्ध धार्मिक क्रियाओं यानि साधनाओं पर तर्क इस
प्रकार किया है कि घर के सदस्य की मृत्यु के पश्चात् ज्ञानहीन गुरूजी क्या-क्या
करते-कराते हैं:-
कुल परिवार तेरा कुटम्ब-कबीला, मसलित एक ठहराई।
बांध पींजरी (अर्थी) ऊपर धर लिया, मरघट में ले जाई।
अग्नि लगा दिया जब लम्बा, फूंक दिया उस ठांही।
पुराण उठा फिर पंडित आए, पीछे गरूड़ पढ़ाई।
प्रेत शिला पर जा विराजे, पितरों पिण्ड भराई।
बहुर श्राद्ध खाने कूं आए, काग भए कलि माहीं।
जै सतगुरू की संगति करते, सकल कर्म कटि जाई।
अमरपुरी पर आसन होता, जहाँ धूप न छांई।
शब्दार्थ:- कुछ व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् उपरोक्त क्रियाऐं तो करते ही हैं,
साथ में गरूड़ पुराण का पाठ भी करते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने सूक्ष्मवेद
(तत्वज्ञान) की वाणी में स्पष्ट किया है कि लोकवेद (दंत कथा) के आधार से
ज्ञानहीन गुरूजन मृतक की आत्मा की शांति के लिए गरूड़ पुराण का पाठ करते



                          मिलते है अगले ब्लॉग में






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